Friday, February 17, 2017

पुरी–समुद्री बीच पर

जय जगन्नाथǃ
यह उद्घोष जहां होता है वह है जगन्नाथ की नगरी– 'पुरी' या जगन्नाथपुरी।
समुद्र के किनारे बसे इस छोटे से शहर में,यहां के निवासियों के साथ–साथ समुद्र भी निरन्तर जय जगन्नाथ का उद्घोष करता रहता है। प्राकृतिक और धार्मिक सुन्दरता से भरपूर इस शहर की यात्रा पर एक दिन हम भी निकल पड़े। हम यानी– मैं और मेरी साथी संगीता। जनवरी के अन्तिम सप्ताह में जबकि पूरा उत्तर भारत शीतलहरी के प्रकोप से कराह रहा होता है,भारत के पूर्वी हिस्से में बसे राज्य उड़ीसा की सांस्कृतिक राजधानी पुरी का मौसम बहुत ही सुहाना होता है।
ठण्ड से दो–दो हाथ करते हुए अपने शहर बलिया के एक छोटे से कस्बे से पुरी की ट्रेन पकड़ने के लिए हम मुगलसराय जंक्शन की ओर जनवरी के अन्तिम सप्ताह में ही निकल पड़े। मुगलसराय से हमारा रिजर्वेशन नंदनकानन एक्सप्रेस में था जो दिल्ली से पुरी तक जाती है। नई दिल्ली में इस ट्रेन का समय 6.25 बजे सुबह पर है और वहां से यह समय से चली भी। मुगलसराय में इसका समय शाम 6 बजे है इसलिए हम इसके नियत समय से काफी पहले स्टेशन पर पहुंच चुके थे। लेकिन यह बेदर्द ट्रेन पहुंची रात के 12.15 बजे। और हम इसका इन्तजार करने में ही थक चुके थे।
खैर,ट्रेन आयी तो सवार हुए और अपनी–अपनी सीटों पर सो गये। एक सीट ऊपर की और दूसरी बीच वाली। कोई डिस्टर्बेंस नहीं,सोने का आनन्द लीजिए। सोने में ही सासाराम,डेहरी आन सोन,गया,कोडरमा,पारसनाथ स्टेशन गुजर गये। सुबह हुई तो सोते–सोते ही पता लगा कि गोमो जंक्शन आने वाला है जहां कि इस ट्रेन को रात बारह बजे के आस–पास होना चाहिए था। लेकिन यह लेट थी और हमें अब किसी तरह पहुंचना था सो सोते रहे। करें भी क्याǃ कुछ देर बाद उठकर नित्यक्रिया से निवृत्त हुए और चाय पीकर फिर सोने की तैयारी करने लगे। इंतजार थकान मिटाने के लिए सोना जरूरी है।

दिन के बारह बजे के लगभग,जबकि इस ट्रेन को पुरी पहुंच जाना चाहिए था,यह खड़गपुर जंक्शन पहुंची। खड़गपुर से समुद्र का प्रभाव प्रारम्भ हो जाता है अर्थात् मैदानी क्षेत्र की ठंड लगभग खत्म हो चुकी थी और समु्द्री क्षेत्र के सम मौसम का प्रभाव शुरू हो गया था। मौसम बदल रहा था,गर्मी बढ़ रही था और आज हम नहाये नहीं थे। अतः इसका साइड इफेक्ट तो होना ही था। साइड इफेक्ट यानी खुजली। सारा शरीर खुजला रहा था। खड़गपुर तक ट्रेन लगभग पूर्व दिशा में जा रही थी और अब इसे दक्षिण दिशा में जाना था अतः इंजन बदलकर दूसरी तरफ लग गया और दिशा बदल गयी। कुछ समय बाद हम उड़ीसा में प्रवेश कर चुके थे और उड़ीसा की लाल मिट्टी हमें अपने देश के किसी दूसरे भाग में होने का एहसास करा रही थी।
इन प्राकृतिक दृश्यों को देखकर लगता है कि प्रकृति ने जानबूझकर विभिन्नताओं की सृष्टि की है अन्यथा चारों तरफ नीरस एकरूपता होती और हर क्षेत्र का अपना विशिष्ट आकर्षण न होता। हर क्षेत्र के अपने इस विशिष्ट आकर्षण के हानि–लाभ दोनों हैं क्योंकि मानव का स्वार्थ किसी को भी नहीं छोड़ता। उड़ीसा का समुद्रतटीय भाग तो काफी विकसित है लेकिन आन्तरिक भाग मानवीय स्वार्थ के शिकार हो गये हैं। इस यात्रा में,ट्रेन की खिड़की से मैं जितना देख सका और इस सम्बन्ध में किताबों में जितना पढ़ा है,उससे लग रहा था कि यह क्षेत्र ईंट–भट्ठों और खनन माफिया का शिकार हो चुका है।

रात के लगभग 8 बजे हमारी ट्रेन पुरी पहुंची अर्थात नियत समय से आठ घंटे लेट। लेट पहुंचने से अधिक दुखदायी रात का पहुंचना होता है। किसी अनजान जगह में रात को पहुंच कर कंधे और हाथ में बैग टांगकर होटलों में कमरा खोजना पड़े तो यात्रा के कष्ट का पता चलता है। हमने आटो का सहारा लिया और चक्रतीर्थ रोड पहुंचे जो समुद्र के लगभग किनारे–किनारे गुजरती है और वहीं 400 रूपये में एक डबल रूम किराये पर लिया। हमारे कमरे की खिड़की,होटल की बालकनी और छत से समुद्र की गरजती लहरों का शोर सुनाई दे रहा था जिसने हमारी सारी थकान मिटा दी।
पिछली रात का खाना तो घर से लाये पराठों वगैरह के भरोसे था,आज दिन का खाना भी ट्रेन के लेट हो जाने की वजह से कामचलाऊ ही हो गया। घर से लाये रात के खाने में से ही जो कुछ बचा था वही ट्रेन में मिल रहे समोसे वगैरह के साथ मिलाकर आज दिन का खाना भी हो गया था नहीं तो एकादशी ही हो जाती। अब रात के खाने के बारे में सोचने का समय था। कमरे में व्यवस्थित होने के बाद हम जल्दी से खाने की खोज में बाहर निकले क्योंकि होटल मैनेजर का निर्देश था कि रात के 10 बजे होटल का गेट बन्द हो जायेगा। 9 बज चुके थे और इस वजह से हम थोड़ी टेंशन में थे। बगल में एक रेस्टोरेण्ट में पहुंचे तो ऑफर मिला–
"वेज थाली या मछली–चावल?"
हमारे पैरों तले की जमीन खिसक गयी। हमारे जैसे शुद्ध शाकाहारी प्राणियों के साथ यह बड़ी भारी समस्या है। मैं इस परिस्थिति के लिए तैयार था लेकिन संगीता के लिए यह पूरी तरह अस्वीकार्य था। माफी मांगकर आगे बढ़े और एक–दो और रेस्टोरेण्ट में इन्क्वायरी की तो वही हाल। रात में देर हो रही थी और आस–पास की गलियों से अभी हम अनजान थे। तो हार–मानकर हमने एक बहुत पुराने सूत्र–वाक्य का सहारा लिया–
"मूँदे आँख कतहुँ कोउ नाहीं।"
एक कॉमन रेस्टोरेण्ट में ही आंख मूंदकर 60 रूपये में वही वेज थाली खानी पड़ी। वापस लौटने में हमें 10 बज गये और अब अगले दिन के बारे में सोचने का समय नहीं था,अतः हम सो गये।

अगला दिन– या यूं कहें कि पुरी में एक तरह से यही हमारा पहला दिन था क्योंकि पिछला दिन तो पुरी पहुंचने में ही बीत गया। सुबह उठने पर मोटरबोट के इंजनों की कर्कश आवाज सुनाई दे रही थी जो काफी चिढ़ाने वाली लग रही थी। इसके पहले एक बार सन् 2002 में जब मैं पुरी गया था तो सुबह उठने पर होटल के कमरे में सागर की लहरों का गर्जन सुनाई देता था। लेकिन इस बार जब इंजन की आवाज कानों में पड़ी तो मैं चौंक उठा और भागा–भागा होटल की छत पर पहुंचा तो अजीब नजारा था। मछली पकड़ने वाली नावें इंजन से लैस थीं और सागर की छाती पर बेतहाशा दौड़ लगा रहीं थीं। नावों का दौड़ना बुरा नहीं था लेकिन इंजन की यह आवाज समु्द्र के रोमांचक गर्जन को लील जा रही थी।
आज का हमारा दिन पुरी को ही समर्पित था। सबसे पहले पुरी के समुद्र तट पर स्नान और दोपहर बाद स्थानीय दर्शनीय स्थानों या मन्दिरों का भ्रमण। आठ बजे तक ब्रश वगैरह करने के बाद नाश्ते के फेर में पड़े क्योंकि समुद्र में नहाने में भी कुछ समय लगेगा और फिर वापस आकर कमरे पर भी नहाना पड़ेगा। समस्या थी शाकाहारी रेस्टोरेण्ट की खोज। जिन खोजा तिन पाइयां। अंततः मिला– जय श्री राम रेस्टोरेण्ट। अन्दर घुसे तो पता चला कि खाना मिलेगा 11 बजे,उसके पहले नहीं। थाली 120 रूपये। अभी 30 रूपये प्लेट की पूड़ी–सब्जी मिल जायेगी। हमने सोचा यही ठीक है। पूड़ी तो ठीक थी लेकिन सब्जी में आलू के बाद और क्या था यह जानने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ रही थी। नाश्ते के बाद तौलिया लेकर चल पड़े समुद्र के किनारे।
कमरे से लगभग 100 मीटर चलने के बाद समुद्र का इलाका शुरू हो गया। समुद्र का इलाका यानी बालू। बालू में फिसलते पैरों के साथ चलते हुए सामने की ओर समुद्री लहरों को देखना शरीर में रोमांच पैदा कर रहा था। बालू में फिसलते हुए पानी के अथाह स्रोत के किनारे पहुंचे तो मन अनियंत्रित हो उठा। चप्पल किनारे फेंक कर लहरों के बीच घुस पड़े। बन्दरों की तरह उछलते कूदते हुए काफी देर तक हमने समुद्री नजारे का आनन्द लिया। उछलते–कूदते शरीर जब थक गया तो पानी में बैठ गये और लहरों के जाल में फंसा मन कुछ दार्शनिक हो गया। किनारे से अठखेलियां करती हुई लहरें शायद ये कह रहीं थीं कि जिस किनारे पर बैठ कर तुम इतने राेमांचित हो रहे हो उसे बनाने के लिए हमें हजारों–लाखों वर्षाें तक संघर्ष करना पड़ा है। बिना परिश्रम के वास्तविक आनंद की प्राप्ति नहीं होती।

ऐसा नहीं कि पुरी के समन्दर के किनारे केवल लहरों का ही आनन्द है। सब कुछ है यहां,आइए आपको दिखाते हैं। लहर–स्नान से थक गये हैं तो बालू पर लोट सकते हैं और इसमें आपको संकोच हो रहा हो तो इन्तजार कीजिए,सारे शरीर पर बालू लपेटे,बालू पर लोटते हुए कोई न कोई दिख ही जाएगा। दिन चढ़ने के साथ अगर धूप तेज लगती है तो कुछ स्थानीय लोगों द्वारा बांस और रस्सियों की सहायता से बनाये गये छोटे से टेन्ट के नीचे आप आराम फरमा सकते हैं लेकिन यह फ्री नहीं है,एक कुर्सी का किराया 50 रूपये है। साइकिल पर चलती फिरती दुकान पर आप स्थानीय दही बड़े वाले चाट का मजा ले सकते हैं। ऊंट की सवारी कर सकते हैं। शरीर की मालिश करवा सकते हैं और नहीं तो किसी विदेशी जोड़े को मालिश करवाते हुए फ्री में देख सकते हैं। खरीदारी करना चाहते हैं तो ड्यूप्लीकेट मोतियों एवं शंख वगैरह को असली बताकर बेचने वाले घुमक्कड़ फेरीवाले भी मिल जायेंगे। फेन उगलती लहरों के साथ फोटो खिंचवाना चाहते हैं तो कमर तक पानी में भीगे हुए फोटोग्राफर महोदय आपकी सेवा में हाजिर हैं। केवल अपने होटल का नाम बता दीजिए,फोटो शाम तक पहुंच जाएगी।
वैसे हमने इसमें से कुछ नहीं किया। समुद्र में नहाने और कुछ देर तक इन नजारों का आनन्द लेने के बाद हम कमरे लौट पड़े। क्योंकि सारा शरीर चिप–चिप कर रहा था। फिर से साफ पानी से नहाना जरूरी था।


सागर की विशालता संग नावों एवं नाविकों की लघुता का एहसास

फेन में बदलता लहरों का आक्राेश



साइकिल पर चलती फिरती दुकान
कुर्सी का किराया 50 रूपये,वैलिडिटी अनलिमिटेड



आइए अब समुद्र का भी सौन्दर्य देख लेते हैं–





अगला भागः पुरी

सम्बन्धित यात्रा विवरण–


पुरी का गूगल फोटो–

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